भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नुंवै बरस माथै / सांवर दइया
Kavita Kosh से
लेवड़ा उतरती भींत माथै
लटकायो जद नुवो कलेंडर
छाती सांमै आय र ऊभग्या
तीन सौ पैंसठ दिन
म्हारी
नित छुलती सांस जाणै
कियां कटै-
एक-एक दिन
लारलै बरस
ना होली-दियाळी लापसी
ना सावण में सातू
रूतां बदळी
अर म्हैं भुगत्या फळ
मुट्ठी भर लोगां री
फाक्यां में आयोड़ो
हरामी रो हाड हरख
कदै नीं ऊभ्यो आय र म्हारै आंगणै
आज सूं भळै
म्हैं हूं
अर सांमै है
ऐ तीन सौ पैंसठ दिन !