भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नुसरत की आँखें / उत्‍तमराव क्षीरसागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समझ नहीं आता
वार करती हैं / या प्‍यार करती हैं
फिर भी बहुत अच्‍छी हैं
नुसरत की आँखें

राह देख चलती है इनसे
जल्‍द भाँप लेती है ख़तरा
भीतर तक झाँक लेती है अक्‍सर
सबको टोहती रहती
लेकिन
उसको खुल के बिखरने नहीं देतीं
नुसरत की आँखें

बकरियों की तरह फिरती
जाने कहाँ-कहाँ दीख जाती
हँसी-चुहल से बलखाती
कमसिन नादां
भरी दुपहरी जेठ की
परछाइ को रौंदती 'जाती है कहाँ'
अक्‍सर पूछती हैं
मछली-सी तड़पती
नुसरत की आँखें