नूतन / आरती 'लोकेश'
मैं नारी हूँ, हर घड़ी,
नूतन भाव करती हूँ।
पति की घर की सेवा में,
मिट-मिट कर फिर से बनती हूँ।
मैं नारी हूँ, बार-बार,
आहत अपने मान को,
अपने ही आँसू के मरहम से,
सहला कर हँस दिया करती हूँ।
मैं नारी हूँ, नित्य प्रति,
मन के बिखरे टुकड़ों को,
समेट सहेज के पुन: जोड़ कर,
फिर नवीन रूप में ढाला करती हूँ।
मैं नारी हूँ, सिर धरे,
लाज-हया के बोझ को,
दो कमज़ोर काँधों पर उठा,
धरती में धँसकर उभरा करती हूँ।
मैं नारी हूँ, मूक खड़ी,
हाँजी-हाँजी कहते-कहते,
निज सोचों की चिता की राख,
दबा सीने में फूँक उड़ाया करती हूँ।
मैं नारी हूँ, भाव-भरी,
गृहस्थी के हित स्वेच्छा से,
चाहतों के कटोरे में ज़हर को,
पी-पीकर जीवित हुआ करती हूँ।
मैं नारी हूँ, पढ़ी-लिखी,
सबके विचारों के सम्मान में,
अपने विचारों की बलि-वेदी पर,
अनपढ़ सी कोई पाठ पढ़ाया करती हूँ।