‘‘दानवों के ग्रह से यह मेरा अन्तिम संवाद है।‘‘
— राबर्टो बोलानो, सुदूर तारा
यह देख कर कि नृशंस लेखकों ने
मल-त्याग कर दिया है मेरी पाण्डुलिपि पर,
मैंने काफ़ी राहत महसूस की
महसूस की एक गहरी अन्तरंगता
इन लोगों के साथ जिनका
प्रेम साहित्य के प्रति इतना पर्याप्त था
कि वे उसका सर्वनाश कर सकें।
मुझे याद आई वह कविता
जो कभी लिखी थी मैंने,
पर जिसे प्रकाशित करने का आत्मविश्वास
नहीं था मुझमें,
वह कविता एक कथित कवि के बारे में थी
जो बैठा करता था शौचालय में
केवल अपना पिछवाड़ा तर करने के लिए
ताकि बिजली की प्रचण्ड बौछार से
कटोरा भर जाए और वह उसमें उतराए।
मैं शुरू से जानता था कि कब्ज़
अत्याश्यक है कविता के लिए,
हालाँकि जो बात मैं नहीं समझ पाया था अब तक,
वह यह कि कविता ख़ुद भी घृणास्पद होती है।
उसके अपने शब्द ही मनहूस हुआ करते हैं पर्याप्त।
लेकिन जब रखा जाता है शब्दों को पास-पास,
जब उन्हें बाँध दिया जाता है लय-छन्दों में :
सृजन का कोई भी कर्म इतना घृणित नहीं होता।
संगोष्ठियों में अपनी बारी का इन्तज़ार करते
मैंने अक्सर देखा है अपने स्थानीय कवियों को
उनकी लयबद्ध कविताएँ पढ़ते हुए।
वे विनम्रतापूर्वक, कृपाकाँक्षी होकर
उन श्रोताओं के साथ सम्भाषण करते हैं
जो शराब की चुस्कियाँ लेते हुए
उन शब्दों पर ठिठियाते हैं
जो उनके मुखारविन्द से नहीं
बल्कि डाट निकले उनके पिछवाड़ों से
होकर निकलते प्रतीत होते हैं।
क्या ही पावन उपहास है यह साहित्य का !
अब भी मौज़ूद हैं ऐसे असभ्य लोग
जो सहन कर पाते हैं ऐसे तमाशों को,
किसी भी सभागार की दीवारें
नहीं सह सकतीं उनके ठहाकों का आघात।
नहीं, कविता वैसी नहीं, जैसी मेरी अपेक्षा थी।
केवल मलत्याग हो रहा है कविता में।
अपमान के इतने वर्षों बाद,
अन्ततः जान लिया है मैंने कि
अपनी कविताओं को मानवीय बनाना है
तो हमें मलत्याग करना ही पड़ेगा उन पर।
उन्मुक्त होकर मलत्याग करना होगा
अपने हाथों को उठाए हुए ऊपर की तरफ़
ताकि नीली पोशाक वाले जासूस
हमारे मल की जाँच कर सकें
पता लगा सकें उसके टिकाऊपन के बारे में,
जो दूसरे जुझारू जासूस हैं नीली पोशाकों में
वे अपनी प्रयोगशालाओं के लिये ले सकें
हमारे काव्यात्मक रिसाव और ढूँढ़ सकें
उनमें परजीवी पिशाचों अथवा हीरों को
जो कि निर्भर करता है नज़रिए पर।
हम लीप देते हैं उन बून्दों को
हमारे स्वारोपित घावों से
रिसती हैं जो हमारी कविताओं पर
रक्त और स्याही को मिलाते हुए
गढ़ लेते हैं एक नवीन काव्य-शैली जिसमें
घिस-घिस कर चमकाते हैं अपने चेहरों को,
ताकि उनसे सुवास आए हमारे घिनौने बच्चों को,
ताकि उन पर लार टपका सकें हमारे घिनौने बच्चे,
और एक बार जब पूरा हो जाए
हमारा रिसना, टपकना और बकबकाना
तो हम कर देते हैं ऐलान
अपनी कविता के मुकम्मल होने का,
अब वह बेहतर है हमारा पिछवाड़ा पोंछने के लिए,
इससे पहले कि चली जाए वह छपने के लिए।
हम पोत देते हैं अपने टाइपराइटर को
मवाद और वीर्य से
और पटाते हैं किसी वज्रमूर्ख को
कि घोषित कर दे वह हमें एक कवि,
किसी दण्डनीय अपराध के लिए
पिंजरे की कारा का बन्दी
घेराव में नृशंस लेखकों के
खँखार कर गला साफ़ करता हुआ
नज़रें चुराता हुआ प्रतिष्ठित साहित्यकारों से,
उसके हाथ बंधे हुए पीठ की तरफ़
ताकि वह साफ़ न कर पाए अपने चेहरे को।
क्योंकि कविता बड़ी मशक्कत का काम है!
बड़ा ही दुष्कर है ऐसा
कुत्सित, घृणित और बदबूदार सृजनकर्म।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र
लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
The Barbaric Writers
BY DANIEL BORZUTZKY
“This is my last communiqué from the planet
of the monsters.”
— Roberto Bolaño, Distant Star
When I watched the Barbaric Writers defecate
on my manuscript, I felt a great sense of relief,
a great sense of fraternity with these men who
loved literature enough to destroy it, and I recalled
a poem I had once written, but never had the
confidence to publish, about a so-called poet
who shat himself into a toilet, only to float on his
back as torrential downpours of power filled the
bowl and drowned him. I have always know that
constipation is essential to poetry, though what I
did not realize, until recently, was that poetry itself
is repulsive. Words on their own are bad enough.
But when placed alongside other words, when
formed into rhythmic lines and stanzas: no act of
creation is more hideous. In the salons, I have often
watched, before my turn came on, our local poets
reciting their verses. They speak politely, and with
grace, to an audience that sips wine and chuckles
at the words that flow not from their mouths, but
from their plugged-up behinds. What a holy mockery
of literature!
Were the barbarians to see such a spectacle, no
theater walls could stand the shock of their laughter.
No, poetry is not what I want. Only defecation on
poetry. For after years of humiliation, I have finally
learned that to humanize our poems, we must shit
on them. We must shit freely, with arms raised, as
detectives in blue sport coats examine our feces
for sustainability, all the while fighting off other
detectives in bluer sport coats who take our
poetic leakage to their laboratories to search
for parasitic demons, or diamonds, depending
on the angle.We smear what drips from our
self-inflicted wounds onto our verses,
combining blood and ink into new poetic forms
in which we rub our faces, the better to smell
our disgusting children with, the better
to drool on our disgusting children with; and
once we have bled and drooled and driveled,
we declare our poems complete, the better to
wipe our asses with, before submitting them
for publication. We smear our typewriters with
pus and semen, and chastise any fool crass
enough to declare himself a poet, an offense
punishable by confinement in a cage
surrounded by Barbaric Writers who
expectorate
between the distinguished author’s eyes,
his hands tied behind his back to prevent
him from cleaning his face. For poetry is hard
work! It is hard to create such filthy,
vile putrescence.