नेत्र अनुराग / सूरदास
नैन न मेरे हाथ रहै ।
देखत दरस स्याम सुंदर कौ, जल की ढरनि बहे ॥
वह नीचे कौं धावत आतुर , वैसेहि नैन भए ।
वह तौ जाइ समात उदधि मैं, ये प्रति अंग रए ॥
यह अगाध कहुँ वार पार नहिं, येउ सोभा नहिं पार ॥
लोचन मिले त्रिबेनी ह्वैकै, सूर समुद्र अपार ॥1॥
इन नैननि मोहिं बहुत सतायौ ।
अब लौं कानि करी मैं सजनी, बहुतै मूँड़ चढ़ायौ ॥
निदरे रहत गहे रिस मोसौं, मोहिं दोष लगायौ ।
लूटत आपुन श्री-अंग सोभा, ज्यौं निधनी धन पायौ ॥
निसिहूँ दिन ये करत अचकरी, सुनहिं कहा धौं आयौ ।
सुनहु सूर इनकौं प्रतिपालत, आलस नैंकु न लायौ ॥2॥
नैन करैं सुख, हम दुख पावै ।
ऐसौ को पर-बेदन जानै, जासौं कहि जु सुनावैं ॥
तातैं मौन भलौ सबही तैं, कहि कै मान गँवावैं।
लोचन, मन, इंद्री हरि कौं भति, तजि हमकौं सुख पावैं ॥
वै तौ गए आपने कर तैं, वृथा जीव भरमावैं ।
सूर स्याम हैं चतुर सिरोमनि , तिनसौं भेद जनावैं ॥3॥
ऐसे आपुस्वारथी नैन ।
अपनोइ पेट भरत हैं निसि-दिन, और न लैन न दैन ॥
बस्तु अपार परी ओछैं कर, ये जानत घटि जैहैं ।
को इनसैं समुझाइ कहै यह, दीन्हैं हों अधिकैहैं ॥
सदा नहीं रैहैं अधिकारी, नाउ राखि जौ लेते ।
सूर स्याम सुख लूटैं आपुन, औरनि हूँ कौं देते ॥4॥
नैन भए बस मोहन तैं ।
ज्यौं कुरंग बस होत नाद के, टरत नहीं ता गोहन तैं ॥
ज्यौं मधुकर बस कमल-कोस के, ज्यौं बस चंद चकोर ।
तैसेंहि ये बस भए स्याम के, गुड़ी-बस्य ज्यौं डोर ॥
ज्यौं बस स्वाति-बूँद के चातक, ज्यौं बस जल के मीन ।
सूरज-प्रभु के बस्य भए ये , छिनु-छिनु प्रीति नवीन ॥5॥
तब तैं नैन रहे इकटकहीं ।
जब तैं दृष्टि परे नँद-नंदन, नैंकुन अंत मटकहीं ।
मुरली घरे अरुन अधरनि पर, कुंडल झलक कपोल ।
निरखत इकटक पलक भुलाने, मनौ बिकाने मोल ॥
हमकौं वै काहै न बिसारैं, अपनी सुधि उन नाहिं ।
सूर स्याम-छबि-सिंधु समाने, बृथा तरुनि पछिताहिं ॥6॥
नैननि सौं झगरी करिहौं री ।
कहा भयौ जौ स्याम-संग हैं, बाँह पकरि सम्मुख लरिहै री ॥
जन्महिं तैं प्रतिपालि बड़े किये, दिन-दिन कौ लेखौ करिहौं री ।
रूप-लूट कीन्ही तुम काहै, अपने बाँटै कौं धरिहौं री ॥
एक मातु पितु भवन एक रहे, मैं काहैं उनकौं डरिहौं री ।
सूर अंस जो नहीं देहिगे, उनकें रंग मैं हूँ ढरिहौं री ॥7॥
कपटी नैननि तैं कोउ नाहीं ।
घर कौ और के आगैं, क्यौं कहिबे कौं जाहीं ॥
आपु गए निरधक ह्वै हमतें, बरजि-बरजि पचिहारी ।
मदकामना भई परिपूरन, ढरि रीझे गिरिधारी ।
इनहिं बिना बे, उनहिं बिना ये, अंतर नाहीं भावत ।
सूरदास यह जुग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत ॥8॥
नैना घूँघट मैं न समात ।
सुंदर बदन नंद-नंदन कौ, निरखि-निरखि न अघात ॥
अति रस-लुब्ध महा लंपट, जानत एक न बात ।
कहा कहौं दरसन-सुख माते, ओट भएँ अकुलात ॥
बार-बार बरजत हौं हारी तऊ टेव नहिं जात ।
सूर तनक गिरिधर बिनु देखै, पलक कलप सम जात ॥9॥
वे नैना मेरे ढीठ भए री ।
घूँघट-ओट रहत नहिं रौकैं, हरि-मुख देखत लोभि गए री ॥
जउ मैं कोटि जतन करि राखे, पलक-कपाटनि मूँदि लए री ।
तउ ते उमँगि चले दोउ हठ करि, करौं कहा मैं जान दए री ॥
अतिहिं चपल, बरज्यौ नहिं मानत, देखि बदन तन फेरि नए री ।
सूर स्यामसुंदर-रस अटके, मानहुँ लोभी उहँइ चए री ॥10॥
अँखियाँ हरि कैं हाथ बिकानीं ।
मृदु मुसुकानि मोल इनि लीन्ही, यह सुनि सुनि पछितानी ।
कैसैं रहति रहीं मेरैं बस, अब कछु औरै भाँति ।
अब वै लाज मरतिं मोहिं देखत, बैठीं मिलि हरि-पाँति ॥
सपने की सि मिलनि करति हैं, कब आवतिं कब जातिं ।
सूरमिली ढरि नँद-नंदन कौं, अनत नहीं पतियातिं ॥11॥
अँखियनि तब तें बैर धर्यौ ।
जब हम हटकी हरि-दरसन कौं, सो रिस नहिं बिसर्यौ ॥
तबही तै उनि हमहिं भुलायौ, गईं उतहिं कौं धाइ ।
अब तौं तरकि तरकि ऐंठति है; लेनी लेतिं बनाइ ॥
भईं जाइ वै स्याम-सुहागिनि, बड़भागिनि कहवावैं ।
सूरदास वैसी प्रभुता तजि, हम पै कब वै आवैं ॥12॥