भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नेत्र से मोती झरेंगे / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कारुणिक यह गीत मेरा, एक दिन जब तुम सुनोगी,
प्राणिके! उस दिन तुम्हारे, नेत्र से मोती झरेंगे।

वेदना से तप्त तन-मन, प्राण मेरा नित्य दहता।
हृद-निलय का नेह-मंडप, जीर्ण होकर नित्य ढहता।
दग्धता से स्नात होकर पुष्प प्रिय! जिस दिन गिरेंगे,
प्राणिके! उस दिन तुम्हारे, नेत्र से मोती झरेंगे।

कौन है, जो त्याज्य होकर भी, तुम्हीं से नेह करता?
बस तुम्हारे नाम, उर में, नेहसिंचित गेह करता?
प्राण! जिस दिन लोग मुझको, चार काँधों पर धरेंगे,
प्राणिके! उस दिन तुम्हारे, नेत्र से मोती झरेंगे।

दे न पाया जो कभी, वह पुष्प सुरभित आज भी है।
रिक्त है मन आज भी प्रिय! और झंकृत साज भी है।
पुष्प वे ही, डाल मुझपर, चिर विदा जिस दिन करेंगे।
प्राणिके! उस दिन तुम्हारे, नेत्र से मोती झरेंगे।