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नैनों की भाषा / कविता भट्ट
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नैनों की भाषा लिपि में बदल न सकी,
वह पीड़ा शब्दों में कभी ढल न सकी।
पहाड़ी नदी जाती तो है दूर बहकर,
सागर में, बदली उड़ती वाष्प बनकर।
फिर पहाड़ पर पानी बन बरसना ,
और बर्फ बन चोटियों पर जमना ।
पत्थरों से घर्षण और पीड़ा बहने की,
वाष्पीकरण की प्रतीक्षा- दूर रहने की।
समझे भाषा नदी की, न पर्वत न सागर
स्वयं ही समझे नदी अपने भीगे आखर।