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नौकर / महेश कुमार केशरी

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हम, नहीं देखते सुबह-
शाम, दिन-रात और समय
असमय
और,
हम कभी-भी दे देते हैं उसको
कोई भी आदेश

चाहे, रात के बारह बजे
हों या दो
हम उसे आदेश
दे, देते हैं कि हमारा आदमी
अलाने जगह से आ रहा है
या फलाने जगह जाने वाला है
उसे वहाँ से ले आओ
या अमुक जगह पहुँचा आओ
कड़कड़ाती, हुई ठँढी रात
हो या चिलचिलाती उमस भरी
गर्म दोपहर,

वो, हमारा
नौकर, से ज्यादा गुलाम होता है

हम, कभी सधे हुए, शब्दों
में, या कभी सुस्ता कर
उससे प्रेम से
नहीं करते कोई बात

हम, कभी भी कहीं भी
दिन-दोपहर-, सुबह-शाम
घर में या साथ लेकर
उसे चलते हुए बाजार
किसी भी ऐरे-गैरे
के सामने कुछ भी कह देते हैं
या कभी-कभी गालियों से
भी करते हैं, बात

नौकर, चुपचाप खडा़ होकर
सुनता रहता है, हर ऐरे-गैरे
नत्थू-खैरे से भी गया बीता
होकर हमारी घुडकियाँ और
बात

मैं, कभी-कभी सोचता हूँ
कि, पहली बार किस मालिक
ने, किस नौकर को कब डाँटा
और, मारा होगा?

या, ये सिलसिला कब और
कहाँ जाकर रूकेगा?

और, ये आवृत्ति कितनी
बार दोहराई गई, होगी?

डाँट, खाने के बाद
घर जाकर
नौकर ने, अपना गुस्सा कितनी
बार, अपने घरवालों
पत्नी और बच्चों
पर उतारा होगा

और, मालिक की डाँट
का और कितने लोगों
के जीवन पर पडा़ होगा
इसका प्रभाव

या डाँट खाने के बाद
उसे नहीं आती होगी
नींद
भर-भर रात

या कि वह फिर कैसे
सबकुछ सहते हुए अगले
दिन, लौटता होगा अपने
काम पर

आखिर, हमारी सोच में
कब और कैसे इतना
अंतर आ जाता है?
कि हम आदमी को
आदमी के अलावे
नौकर समझने लगते हैं?