भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न्यायमूर्ति-2 / संजय कुंदन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे न्यायमूर्ति
जब आपकी आँखों में आँसू देखे
तो डर गया

लगा कि
किसी ने धक्का
दे दिया हो
एक अन्धेरी खाई में

हालाँकि आपसे हमारा
सीधा-सीधा कोई वास्ता नहीं
पर आपको देखकर भरोसा बना रहता है
ठीक उसी तरह जैसे सूरज को देखकर
विश्वास बना रहता है कि
हमारे जीवन में थोड़ी रोशनी तो रहेगी

आपको रोते देख
सवाल उठा
आख़िर कौन है जो
न्याय को भी बना रहा असहाय

हमारे इलाके में
सब कुछ धीरे-धीरे आता है
यहाँ देर से पहुँची सड़क
देर से पहुँचे बिजली के खम्भे
देर से पहुँचे स्कूल और अस्पताल
लेकिन अब तक नहीं पहुँचा संविधान

कुछ लोग कहते हैं संविधान का रास्ता
रोक दिया गया है
कुछ कहते हैं कि वह आ चुका है
पर हमारी आँखें उसे देख नहीं पा रहीं

हे न्यायमूर्ति
आपकी विकलता देख
बहुत कुछ साफ़ हो गया
समझ में आ गया कि हमारे जीवन में
अब तक इन्द्रधनुष बन क्यों नहीं
उग पाया संविधान ।