न्याय की याचना देवता से रही / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
न्याय की याचना देवता से रही,
किन्तु हर मोड़ पर प्रेत का वास है।
स्वार्थ की बेड़ियों में बँधे सब जहाँ
न्याय की कामना ही वहाँ व्यर्थ है
आचरण की तुला पर ठहरते नहीं
आवरण में छिपा सूत्रवत् अर्थ है
आज का ही नहीं रोज़ का क्रम यही,
कालिमा ने रचा इनका इतिहास है।
न्याय की याचना देवता से रही,
किन्तु हर मोड़ पर प्रेत का वास है॥
कौन अपना पराया इसी द्वन्द्व का
नित्य लेखा ही सबसे बड़ा काम है
नीति-नवनीत भाषण-विभूषण बने
नीतिपालक नहीं एक भी नाम है
उच्च आदर्श सम्पूर्ण गिरवी हुए,
राम की नीति का नित्य उपहास है।
न्याय की याचना देवता से रही,
किन्तु हर मोड़ पर प्रेत का वास है॥
साधुओं की कुटी में सपेरे पले
साँप को दूध मिलता ज़हर के लिए
भावना निष्प्रभावी यहाँ हो गयी
शब्द निहितार्थ केवल क़हर के लिए
श्लोक मैंने रचे अर्चना के लिए,
भाष्य ने कर दिया भाव का ह्रास है।
न्याय की याचना देवता से रही,
किन्तु हर मोड़ पर प्रेत का वास है॥
राम भगवान मेरे कहाँ खो गये
खो गयी है कहाँ दिव्य सरिता-सुधा
धर्म-अध्यात्म का बोझ भारी हुआ
यन्त्रणा दे रही है उदर की क्षुधा
आज मुखिया नहीं मुख सरिस रह गये,
राम केवल तुम्हारा ही विश्वास है।
न्याय की याचना देवता से रही,
किन्तु हर मोड़ पर प्रेत का वास है॥