भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न्यू नै लखा कै देख यार किसा चाला सा कठर्या सै / मेहर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्दगी खोकै मरणा होगा मेरा अन्न जल हटर्या सै
न्यू नै लखा कै देख यार किसा चाला सा कठर्या सै।टेक

छम छम छनननन करती चालै फली सिरस की होरी
दूर खड़ै नै फूकैगी किसी आग करस की होरी
एक बै मेरे तैं बोल गई ईब आस दरस की होरी
ईब लग बी ब्याही कोन्या या बीस बरस की होरी
आंवते ज्यात्यां नै दे काट गंडासा अहरण पै चंट रह्या सै।

भागा आला मृग चरैगा केसर क्यारी दिखै
भौंरा बणकै ल्यूं खसबोई यो फूल हजारी दिखै
सो हूरां म्हं खड़ी करें तैं एक या न्यारी दिखै
ईब तलक बी ब्याही कोन्या कती कंवारी दिखै
उस तरिया की काया का सही मेला सा लुट रह्या से।

इस तरियां परी पडै भूल म्हं जणूं मृग चौकड़ी चुक्कै
हट कै काम बणै वारी जो सही टेम नै उक्कै
काम देव की ऐसी माया चोट जिगर म्हं दूखै
उस तरिया का के जीणा जो पीहर के म्हां सूखै
मरद मिलै वा आनन्द लूटै सही जोबन छंट रह्या सै।

भूरे-भूरे मुख पै लागूं मर्द बण्या चाहूं सूं
कामदेव नै बस मैं करूं ईसा जर्द बण्या चाहूं सूं
उसकी अग्नि तुरत बुझाउं पाणी शरद बण्या चाहू सूं
वा त्रिया जै बहु बणै मैं अह का मर्द बणया चाहूं सूं
कहै मेहरसिंह मिलण की खातर न्यू माला रट रह्या सै।