भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न कमरा जान पाता है न अंगनाई समझती है / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न कमरा जान पाता है, न अँगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती है

हमारे और उसके बीच एक धागे का रिश्ता है
हमें लेकिन हमेशा वो सगा भाई समझती है


तमाशा बन के रह जाओगे तुम भी सबकी नज़रों में
ये दुनिया दिल के टाँकों को भी तुरपाई समझती है

नहीं तो रास्ता तकने आँखें बह गईं होतीं
कहाँ तक साथ देना है ये बीनाई <ref>दृष्टि</ref>समझती है

मैं हर ऐज़ाज़<ref>पुरस्कार</ref>को अपने हुनर<ref>निपुणता</ref>से कम समझता हूँ
हुक़ुमत<ref>शासन</ref>भीख देने को भी भरपाई समझती है

हमारी बेबसी<ref>लाचारी</ref>पर ये दरो-दीवार रोते हैं
हमारी छटपटाहट क़ैद-ए-तन्हाई समझती है

अगर तू ख़ुद नहीं आता तो तेरी याद ही आए
बहुत तन्हा हमें कुछ दिन से तन्हाई समझती है

शब्दार्थ
<references/>