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न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें / ज़फ़र ताबिश

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न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
आओ ख़ामोशियों के लब खोलें

बस्तियाँ हम ख़ुद ही जला आए
किसी बरगद के साए में सो लें

कुछ नए रंग सामनें आएँ
आ कई रंग साथ में घोलें

ज़र्द मंज़र अजीब सन्नाटे
खिड़कियाँ क्यूँ घरों की हम खोलें

रास्ते सहल हैं मगर ‘ताबिश’
कौन है साथ जिस के हम हो लें