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न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ / 'मुज़्तर' खैराबादी

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किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्‍त-ए-गुब़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़मा-ए-जाँ-फज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखों की पुकार हूँ

मेरा रंग रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्मा जलाए क्यूँ मैं वो बे-कसी का मज़ार हूँ

न मैं ‘मुज़्तर’ उनका हबीब हूँ न मैं ‘मुज़्तर’ उनका रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

इस ग़ज़ल को बहुत-से स्थानों पर आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के नाम से भी शाया किया जाता है। लेकिन यह ग़ज़ल मुज़्तर ख़ैराबादी साहब की लिखी हुई है। मुज़्तर ख़ैराबादी जाँ निसार अख़्तर के पिता और जावेद अख़्तर के दादा थे।