न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ / बलबीर सिंह 'रंग'
न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ।
हंसाते-हंसाते रुलाया गया हूँ।
सताए हुए को सताना बुरा है,
तृषित को तृषा का बढ़ाना बुरा है,
विफल याचना की अकर्मण्यता पर-
अभय-दान का मुस्कराना बुरा है।
करूँ बात क्या दान या भीख की मैं,
संजोया नहीं हूँ, लुटाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...
न स्वीकार मुझको नियंत्रण किसी का,
अस्वीकार कब है निमंत्रण किसी का,
मुखर प्यार के मौन वातावरण में-
अखरता अनोखा समर्पण किसी का।
प्रकृति के पटल पर नियति तूलिका से,
अधूरा बना कर, मिटाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...
क्षितिज पर धरा व्योम से नित्य मिलती,
सदा चांदनी में चकोरी निकलती,
तिमिर यदि न आह्वान करता प्रभा का-
कभी रात भर दीप की लौ न जलती।
करो व्यंग मत व्यर्थ मेरे मिलन पर,
मैं आया नहीं हूँ, बुलाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...