भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ / बलबीर सिंह 'रंग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ।
हंसाते-हंसाते रुलाया गया हूँ।

सताए हुए को सताना बुरा है,
तृषित को तृषा का बढ़ाना बुरा है,
विफल याचना की अकर्मण्यता पर-
अभय-दान का मुस्कराना बुरा है।

करूँ बात क्या दान या भीख की मैं,
संजोया नहीं हूँ, लुटाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...

न स्वीकार मुझको नियंत्रण किसी का,
अस्वीकार कब है निमंत्रण किसी का,
मुखर प्यार के मौन वातावरण में-
अखरता अनोखा समर्पण किसी का।

प्रकृति के पटल पर नियति तूलिका से,
अधूरा बना कर, मिटाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...

क्षितिज पर धरा व्योम से नित्य मिलती,
सदा चांदनी में चकोरी निकलती,
तिमिर यदि न आह्वान करता प्रभा का-
कभी रात भर दीप की लौ न जलती।

करो व्यंग मत व्यर्थ मेरे मिलन पर,
मैं आया नहीं हूँ, बुलाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे...