भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है / सदा अम्बालवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है
तमाम शहर में चर्चा तिरे शबाब का है

शराब अपनी जगह चाँदनी है अपनी जगह
मगर जवाब ही क्या हुस्न-ए-बे-नक़ाब का है

हुए हैं ना-गहाँ बिस्मिल शरीक-ए-बज़्म जो सब
क़ुसूर कुछ है तिरा कुछ तिरे नक़ाब का है

न तू ने मय चखी ज़ाहिद न जुर्म-ए-इश्क़ किया
तो सुब्ह ओ शाम तुझे फ़िक्र किस अज़ाब का है

मय-ए-तुहूर का इस वक़्त ले न नाम ऐ शैख़
ये वक़्त-ए-शाम तो अँगूर की शराब का है

‘सदा’ के पास है दुनिया का तजरबा वाइज़
तुम्हारी बात में बस फ़ल्सफ़ा किताब का है