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न जाने क्यूं मिरे ग़म ने किया है ग़मज़दा उसको / रविकांत अनमोल

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न जाने क्यूं मिरे ग़म ने किया है ग़मज़दा उसको
वो भूला ग़म सभी अपने मैं जब हँस कर मिला उसको

मिरी आँखें भी उसकी दीद की थीं मुन्तज़िर कब से
वो आता सामने मेरे तो मैं भी देखता उसको

वफ़ा से बेवफ़ाई से जुदा जज़्बात कितने हैं
वफ़ा जो कर नहीं पाया कहूं क्यूं बेवफ़ा उसको

जलाकर जिसने सारी अंजुमन को राख कर डाला
न जाने कब लगी वो आग, दी किसने हवा उसको

बशर को चाहिए अपना पता वो जेब में रख्खे
न जाने कब कहां पेश आए कैसा हादिसा उसको

किसी सुनसान बग़िया में खिला है कोई नन्हा गुल
झुलाती है बहुत ही प्यार से बादे-सबा उसको

न जाने किस तरह का है असर मेरी दुआओं में
सुकूं मुझको मिला है जब भी दी मैंने दुआ उसको

सदाएं उसने जो दी हैं वो सदियों बाद गूंजेंगी
अभी तो ज़िन्दगी ने कर दिया है बे-सदा उसको