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न जाने ये कैसी निगोड़ी सदी है / राम नाथ बेख़बर

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न जाने ये कैसी निगोड़ी सदी है
ख़ुशी को निगलने में इसकी ख़ुशी है

लहू बह रहा है सड़क पर निरर्थक
कटारों की ये कैसी दादागिरी है

ग़मों के समुन्दर में डूबा हुआ हूँ
लबों पर मगर मेरे अब भी हँसी है

बदलते रहे हैं वरक़-दर-वरक़ हम
यक़ीनन ये जीवन भी इक डायरी है

हवेली का रौशन है हर एक कोना
मगर झोपड़ी में फ़क़त तीरगी है

क़दम दर क़दम हो रहे हादसे हैं
चले कैसे मुश्किल में हर आदमी है

मधुर तान पर झूम उट्ठे हैं पौधे
कि खेतों में होने लगी सोहनी है

हवाओं की दस्तक पे देती है मैसेज
मेरे घर की खिड़की बहुत चुलबुली है