न ढक पायी, असत की मेघमाला / लाखन सिंह भदौरिया
सत्य का सूरज न ढक पायी, असत की मेघमाला।
एक पल को ढाँप सकते, सघन, घन उगते अरुण को।
पर सदा को लुप्त कर सकते नहीं, तपते तरणि को।
ऋषि तुम्हारी तेज किरणों से तिमिर पट फट चुका है,
आज का संसार देखे, खोलकर अन्तर्नयन को।
कल तलक जिसको न माना, आज वह देखे जमाना-
किस तरह से क्षार करती, अज्ञता-को ज्ञान ज्वाला।
सत्य का सूरज न ढक पायी, असत की मेघमाला।
मेघ समझे थे, अहम्वश अब अँधेरा ही रहेगा।
रात समझी थी, अवनि पर राज्य मेरा ही रहेगा।
थे मुदित मन में तमीचर, देख कर छायी तमिस्रा,
सोचते थे, अब न भू पर सूर्य का फेरा रहेगा।
पर मिटाकर भ्रान्ति तम को यों कहा शाश्वत नियम ने-
यामिनी के वक्ष को ही, चीर कर उगता उजाला।
सत्य का सूरज न ढक पायी, असत की मेघमाला।
श्रेय औरों को भले ही मिल रहा हो आज जग में।
पर तुम्हारी ज्योति जग मग, जग रही है विश्व मग में।
खा रहे हैं फल हम उसी के, जो विटप तुमने लगाये,
दृष्टि आते हों, भले ही दूसरे ही रूप रंग में।
यह जगत माने न माने, पर तुम्हारी साधना ने-
विश्व को अमृत पिलाया, खुद पिया विष तिक्त प्याला।
सत्य का सूरज न ढक पायी, असत की मेघमाला।
क्रान्तदर्शी दृष्टि कर से, जो कभी तुमने छुये थे।
जो विचारों की तरंगों में सतत तैरे हुये थे।
तज दिये जिनके लिये, सुख-शान्ति नींद विराम तुमने,
विश्व के पविपात् सहकर नित्य विष प्याले पिये थे।
वे सभी सपने तुम्हारे, आ रहे अंजलि पसारे-
शीघ्र करने को समर्पित देव, श्रद्धा सुमन माला।
सत्य का सूरज न ढक पायी, असत की मेघमाला।