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न तुम बेज़ार होते हो, न हम बेज़ार होते हैं / अशोक रावत

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न तुम बेज़ार होते हो, न हम बेज़ार होते हैं,
बड़ी मुश्किल से लेकिन हम कभी दो चार होते हैं.

पहुँचते ही नहीं है हम कभी नज़दीक फूलों के,
हमारे सोच की तासीर में जब ख़ार होते हैं.

बना लेते हैं चारों ओर अपने एक हम घेरा,
फ़सीलें सात फुट की तीन फुट के तार होते हैं.

तुम्हें हम बख़्श देते हैं कि शायद तुम संभाल जाओ,
ज़माना ये समझता है कि हम लाचार होते हैं.

अमीरों की किसी बस्ती में क्यों लपटें नहीं उठतीं,
हमारे साथ ही क्यों हादसे हरबार होते हैं.

मुहब्बत हो,अदावत हो, इबादत हो, तिजारत हो,
रियायत अब नहीं होती है खुलके वार होते हैं.

पुरानी हेडलाइन की बदल जाती हैं तारीखें,
वही गुंडों के अफ़साने, वही अख़बार होते हैं.

वो जलसे हों सियासत के, कि बारातें दबंगों की,
तमाशे रोज़ ही अब तो सरे बाज़ार होते हैं.

छुपा लेते हैं अपने राज़ नक़ली मुस्कराहट में,
कहाँ दिल खोलने को लोग अब तैयार होते हैं.