भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न तो कुछ कुफ़्र है न दीं कुछ है / ज़फ़र
Kavita Kosh से
न तो कुछ कुफ़्र है, न दीं कुछ है
है अगर कुछ, तेरा यकीं कुछ है
है मुहब्बत जो हमनशीं कुछ है
और इसके सिवा नहीं कुछ है
दैरो-काबा में ढूँढता है क्या
देख दिल में कि बस यहीं कुछ है
नहीं पसतो-बुलन्द यकसां देख
कि फ़लक कुछ है और ज़मीं कुछ है
सर-फ़रो है जो बाग़ में नरगिस
तेरी आंखों में शरमगीं कुछ है
बर्क काँपे न क्यों कि तुझ में अभी
ताब-ए-आहे-आतिशीं कुछ है
राहे-दुनिया है, अजब रंगारंग
कि कहीं कुछ है और कहीं कुछ है