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न तौ अनपढ़ ही रह्यौ और न ही काबिल भयौ मैं / नवीन सी. चतुर्वेदी
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न तौ अनपढ़ ही रह्यौ और न ही काबिल भयौ मैं।
खामखा धुन्ध के इसकूल में दाखिल भयौ मैं॥
मेरे मरते ही जमाने कौ लहू खौल उठौ।
खामुसी ओढ़ कें आबाज में सामिल भयौ मैं॥
ओस की बूँद मेरे चारौ तरफ जमबे लगीं।
देखते-देखते दरिया के मुकाबिल भयौ मैं॥
अब हु तकदीर की जद पै है मेरौ मुस्तकबिल।
कौन से म्हों ते कहों कल्ल-ते-काबिल भयौ मैं॥
अपने भीतर सों उबरते ही मिलौ सन्नाटौ।
घर ते निकरौ तौ बियाबान में दाखिल भयौ मैं॥