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न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक / याक़ूब आमिर
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न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
दुआओं तक थी सहर और शाम रोने तक
मुझे भी ख़ुद न था एहसास अपने होने का
तिरी निगाह में अपना मक़ाम खोने तक
हर एक शख़्स है जब गोश्त नोचने वाला
बचेगा कौन यहाँ नेक-नाम होने तक
चहार सम्त से रहज़न कुछ इस तरह टूटे
कि जैसे फ़स्ल का था एहतिमाम बोने तक
बता रहा है अभी तक तिरा धुला दामन
कि दाग़ भी हैं नुमायाँ तमाम धोने तक
हज़ार रंग-ए-तमन्ना हज़ार पछतावे
अजब था ज़ेहन में इक इजि़्दहाम सोने तक
सुना है हम ने भी आज़ाद था कभी ‘आमिर’
किसी की चाह का लेकिन ग़ुलाम होने तक