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न मिरा मकाँ ही बदल गया न तिरा पता कोई और है / दिलावर 'फ़िगार'

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न मिरा मकाँ ही बदल गया न तिरा पता कोई और है
मिरी राह फिर भी है मुख़्तलिफ़ तिरा रास्ता कोई और है

वो जो महर बहर-ए-निकाह था वो दुल्हन का मुझ से मिज़ाह था
ये तो घर पहुँच के पता चला मिरी अहलिया कोई और है

जो सजाई जाती है रात को वो हमारी बज़्म-ए-ख़याल है
जो सड़क पे होता है रात-दिन वो मुशाएरा कोई और है

कभी 'मीर' ओ 'दाग़' की शाइ'री भी मोआ'मला से हसीन थी
मगर अब जो शेर में होता है वो मोआ'मला कोई और है

ये जो तीतर और चकोर हैं वही पकड़ें उन को जो चोर हैं
मैं चकोर-अकोर का क्या करूँ मिरी फ़ाख़्ता कोई और है

मुझे माँ का प्यार नहीं मिला मगर इस का बाप से क्या गिला
मिरी वालिदा तो ये कहती है तिरी वालिदा कोई और है