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न मैं सुब्ह का, न मैं शाम का / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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न मै सुब्ह का,न मैं शाम का,न ज़मीं का हूँ,न ज़माँ का हूँ
कोई ये बता दे मुझे ज़रा कि मैं हूँ अगर तो कहाँ का हूँ?

मैं क़तील-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल हूँ, मै असीर-ए-ख़ौफ़-ए-मआल हूँ
मैं ही सैद हूँ,मैं ही जाल हूँ, न यकीं का हूँ, न गुमाँ का हूँ!

न तो कोई मेरा वुजूद है, न ही कोई मेरा शुहूद है
मैं मिसाल-ए-साया-ए-दूद हूँ, न यहाँ का हूँ, न वहाँ का हूँ!

न निशान है कोई राह का, न ही संग-ए-मील का है पता
मुझे कोई देखे तो क्यों भला, मैं ग़ुबार उम्र-ए-रवाँ का हूँ!

न मकाँ मिरा, न मकीं मिरे, न ही ये ज़मान-ए-ज़मीं मिरे
मुझे खुद ही अपना पता नहीं, तो मैं कैसे कौन-ओ-मकाँ का हूँ?

न सुबू मिरा, न ही ख़ुम मिरा, न ही मय मिरी, न ही जाम-ए-मय
मिरी तिश्नगी! मिरी तिश्नगी!मैं रहीन पीर-ए-मुग़ाँ का हूँ!

न अज़ाँ हूँ मस्जिद-ए-हुस्न की, न जरस हूँ सौमा-ए-इश्क़ की
मुझे सुन के कोई करेगा क्या, कि मैं कर्ब ज़ख्म-ए-निहाँ का हूँ!

न मैं क़ील का,न मैं क़ाल का, न मैं हिज्र का, न विसाल का
मैं हूँ अक्स अपने ख़याल का, मैं फ़रेब अपनी ही जाँ का हूँ

न ही नज़्म हूँ, न ग़ज़ल हूँ मैं, न ही दाद-ए-बज़्म-ए-हयात हूँ
न नक़ीब शे’र-ए-मलीह का, न मज़ाक हुस्न-ए-बयाँ का हूँ!

हमा बे-दलील मिरा सफ़र हमा बे-ख़रोश मिरा हज़र
हमा बे-निशाँ,हमा बे-हदफ़,मैं वो तीर टूटी कमाँ का हूँ!