भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न हो मक़सूद तेरी जुस्तजू तो फिर सफ़र क्या है / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न हो मक़सूद तेरी जुस्तजू तो फिर सफ़र क्या है
न रोये याद में तेरी तो फिर दीदाए-तर क्या है

उन्हें तो गेसुओं से भी कभी फ़ुर्सत नहीं मिलती
मेरे हाले दिले-बेज़ार की उनको ख़बर क्या है

मुझे ऐ नासेह नादां डराता है तू दोज़ख़ से
यहीं मैं रोज़ जलता हूँ मुझे दोज़ख़ का डर क्या है

उधर तू है कि मुझ पर ज़ुल्म ढाना तेरा शेवा है
दिलों को तोड़ने वाले तू क्या जाने इधर क्या है।