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पंख इनके खुल गए हैं / कुमार रवींद्र

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अरे बच्चो !
उधर देखो
उड़ रहे आकाश में हैं फिर कबूतर

दिखे अरसे बाद
जाने किस गुफ़ा में क़ैद थे ये
या किसी मेहरुन्निसा की
टहल में मुस्तैद थे ये

आओ
इनसे ज़रा पूछें
किस तरह से निकल पाए महल-बाहर

उधर लालच भी कई थे
और लासे भी लगे थे
ये पखेरू वेणुवन के
गये सपनों से ठगे थे

बिना इनके
हुए कैसे थे अपाहिज
इधर जंगल-घाट-पोखर

हवा में परवाज़ करके
पंख इनके खुल गए हैं
और इनके ढंग उड़ने के
सुनो, बिलकुल नए हैं

एक लय में
घूमते ये
कभी नीचे - कभी एकदम बहुत ऊपर