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पंचम सर्ग (अभियान) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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जो रहे जिलाये राष्ट्र-भावना, मर्म वही
जो राष्ट्र-मुक्ति का मंत्र बने, है धर्म वही

”साथियो! देश को नमन करो
आशा, निष्ठा, विश्रंभ
देश के प्रति
ईश्वर के प्रति न हिले

ईश्वर की इच्छा नहीं कि पीढ़ी वर्तमान
हो जाय लुप्त
हो जायँ लुप्त पीढ़ियाँ कि जो आनेवाली
यह भी न कामना ईश्वर की

ईश्वर न चाहता है कि
अबल, सामर्थ्यहीन, निस्तेज, क्षीण
हो जाय देश इतना कि
विश्व में हर कोई अपमान हमारा करे
घृणा से नाम हमारा ले
हमको गर्हित समझे

ईश्वर की इच्छा यही कि
वह भू-खंड जहाँ
भट-भूषण सुभट-शिरोमणि रामचंद्र उतरे
उतरे वीरों के वीर
सूरता के प्रतीक श्रीकृष्ण
कर्ण-से महावीर का
जहाँ हुआ उद्भव, विकास
वह महादेश, अभिवंद्य देश
अपनी ऊर्जा का परिचय दे
कण-कण उसका

बन जाय मुक्ति का चक्रवात
जिसके पंखों पर हो सवार
सब ओर महीधर युद्ध करें
प्रज्वलित करें बलि-कुण्ड
फूँक कर अंगारों को क्रुद्ध करें

ईश्वर की यह कामना कि हम
अपने शोणित से सींच-सींच
नव-मातृ-मूर्त्ति निर्माण करें
लें शपथ,
शपथ में प्राण भरें
अन्विति का अमिट प्रमाण भरें

तो योद्धाओ!
प्यारे स्वदेश के झंडे को खोलो, खोलो
फिर एक कंठ से ईशानी की जय बोलो
इस झंडे का उद्दाम तेज
कृषकों, श्रमिकों को बल देगा
आबालवृद्धवनिता, सबको
स्वातन्त्र्य-सुकीर्ति धवल देगा

फहरायेगा यह जय-निशान
संपूर्ण देश पर
नदियों और पहाड़ों पर
सर्वत्र खेत-खलिहानों पर
तरु-शिखरों पर, संघानों पर
महलों की ऊँची चोटी पर
झोपड़ियों की दीवारों पर
फहरायेगा यह जय-निशान
जय-घोष और हुंकारों पर

हम जान रहे हैं शत्रु, हमारे सभी ओर
वे दाँयें हैं
वे बायें हैं
वे अंधकार में रेंग रहे ज्यों विषव्याल
हम बढ़े चलेंगे हाथों में लेकर मशाल
लौ ले प्रकाश से विशिख अनगिनत छूटेंगे

हम चरण धरेंगे बाँमी पर
विष-बुझे दरन सब टूटेंगे

हम नहीं जानते बैरी के सम्मुख झुकना
हम नहीं जानते कायर-सा रुकना-लुकना
कब झुका धर्म-अनुशासन सम्मुख पशु-बल के
वह तो ज्योतिःकण छितराता है जल-जल के

हम एक नया अध्याय खोलने को बेकल
हम एक स्वर्ग रचने को नया विकल-विह्वल
संसार बनाने को नूतन पावन-पवित्र
हम निकल पड़े हैं आज वरण कर मरण मित्र

यह प्यास मुक्ति की कभी नहीं मिटनेवाली
है बुला रही रणचंडी के
पग-पूपुर की ध्वनि मतवाली
मैं देख रहा, उतरी आती हैं नग्न-चरण
अभिमन्यु और अर्जुन की आत्माएँ अमरण
मैं देख रहा सप्तर्षि खड़े हैं लोक-भरण
हमको असीसने
पुलकित अति कण-कण
क्षण-क्षण

अभियान हमारा होता है आरंभ आज
देखो, देखो लोहित किरणों का नया साज
तुरंगों को छोड़ो जिधर सिंहगढ़, बढ़ने दो
ढीलो लगाम बेधड़क नई गति गढ़ने दो

है तुम्हें शपथ विधवा माताओं, बहनों की
है तुम्हें शपथ उन गहनों की
तुमने विवाह में पहने जो
टूअर बच्चांे का मौन शपथ देता तुमको
तुम बढ़ो काल झुक-झुक कर पथ देता तुमको
देखो, देखो, भू से नभ तक उल्लास बिछा
उद्बोधन को उन वीरों का इतिहास बिछा
जिनका प्रण था, ‘बंधन स्वदेश का काटेंगे
समरांगण को नर-मुण्ड-माल से पाटेंगे
चाहे ग्रह-मंडल अपने पथ से हट जाये
पीछे न हटेंगे हम चाहे सिर कट जाये’
प्रण यही हमारा भी
यदि हम साहस हारें
तो पुरुखों की आत्माएँ
हमको धिक्कारें
प्रण यही हमारा भी
यह रिपु सम्मुख आये
तो खंग हमारा
क्रोा काल का बन जाये

बैठे हैं यहाँ विदेशी
हमें कुचलते हैं
वे भोग रहे सुख
हम साँसत में पलते हैं
अपवित्र हो गई
हवा यहाँ की
दूषित जल
रौरव की लपटों से
विषाक्त, पल और विपल
ईश्वर न चाहता
यह शासन हम सहन करें
ईश्वर न चाहता
परवशता हम वहन करें
देखें पहाड़, नदियाँ
हम कैसे बढ़ते हैं
देखें तृण-तरु
हम कैसे रिपु पर चढ़ते हैं

दुनिया जो चाहे, कहे
हमें परवाह नहीं
साक्षी ईश्वर
ऐश्वर्य-कीर्ति की चाह नहीं
धर्मान्ध नहीं हम
हृदय हमारा निश्छल है
सब धर्म बराबर
मूल धर्म का मंगल है
सब का ईश्वर है एक
अनेक न ईश्वर है

हम मानव
मानवता का अविभाजित स्वर हैं
बेडौल नहीं है सृष्टि
रुकी है सम पर सब
ईश्वर के सिंहासन के
निकट बराबर सब
जग में होता दासत्व
पाप सब से भारी
अन्याय कि यह क्रम
रुके नहीं अत्याचारी
दासत्व प्रतीक मनुज की
गिरी प्रकृति का है
कुण्ठा की परिभाषा
अवरोध प्रगति का है

पृथ्वी पर जितने सूत्र प्यार के होते हैं
करुणा के, मनुष्यता के जितने सोते हैं
दासत्व घृणा से सबका उन्मूलन करता
अपनी कुरूपता, कर्दम कण-कण में भरता

वाणी विचारकों, संतों और फकीरों की
चिंतन-धारा धर्मी-धर्मोत्तर-धोरों की
कह रही, समय आ पहुँचा शर-संधान करो
कह रही, राष्ट्र के लिए बढ़ो, बलिदान करो
साथियो! शपथ लो
राष्ट्रध्वज न झुकायेंगे
पथ रोकें ग्रह, तो भी हम बढ़ते जायेंगे
सूरज टूटे,
चंद्रमा भस्म हो
व्योम हिले
अभियान रुकेगा नहीं
न जबतक मुक्ति मिले

मैं देख रहा दो चरण निरंतर चलते हैं
सम्मुख पहाड़, खाई, समुद्र, सब जलते हैं
मैं देख रहा मेघों में उड़ती राखें हैं
दिन-रात चमकतीं दो गर्वीली आँखें हैं

यह यौवन है, तल्लीन मुक्ति की दीक्षा में
सारी दुनिया है खड़ी अकंप प्रतीक्षा में
यह यौवन नया मनुष्य, नया मानव देगा
पीड़न-उत्पीड़न मिटा, नया वैभव देगा
कण-कण को बाँधेगा सनेह के बंधन में
उल्लास भरेगा नया-नया सबके मन में
सृति को देगा संस्कृति नवीन, नवधृतियाँ भी
नूतन स्वरूप देगा, नूतन आकृतियाँ भी

साथियो! समुज्ज्वल इस यौवन की जय बोलो
हम मुट्ठी भर हैं सही, न तुम संख्या तोलो
लो शपथ कि हम भूलेंगे सब रिश्ते-नाते
बाधक होंगे जो तत्त्व निरंकुश मदमाते
उन पर हम टूट पड़ेंगे वज्राशनि बन कर
चाहिये देश की मुक्ति, यही है प्रण भास्वर
जो रहे जिलाये राष्ट्र-भावना, मर्म वही
जो राष्ट्र-मुक्ति का मंत्र बने, है धर्म वही“

भाषण समाप्त जब हुआ
शिवाजी झुके
और
चुटकी भर माटी उठा
लगा ली माथे से
अनुसरण किया सेना ने
फिर जयकार हुआ
फिर चले तीर-सा तुरग
हवा पीछे दौड़ी