पंच-अतत्व / मुदित श्रीवास्तव
' मैं ताउम्र जलती रही
दूसरों के लिए,
अब मुझमें
ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'
आग ने यह कहकर
जलने से इनकार कर दिया
' मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे
बाहर की हवा ठीक नहीं है'
ऐसा हवा कह रही थी,
' मेरे पिघले हुए स्वरूप को भी
तो कहाँ बचा पाए तुम? '
ऐसा पानी ने कहा
और भाप बनकर गायब हो गया!
' मैं अपने आपको समेट लूँगा,
इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में
छेद करती बढ़ रही हैं'
ऐसा आकाश ने कहा
और जाकर छिप गया इमारतों के बीच
बची दरारों में...
जब धरा कि बारी आयी
तो उसने त्याग दिया घूर्णन
और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में
दोनों हाथ ऊपर किये हुए
यह कहकर कि
' मैं बिना कुछ किये
सज़ा काट रही हूँ! '
इससे पहले कि मेरा शरीर कहता
'मैं मर रहा हूँ'
वह यूँ मरा
कि न उसे जलने के लिए आग मिली
न सड़ने के लिए हवा
न घुलने के लिए पानी
न गड़ने के लिए धरा
न आँख भर आसमान
फटी रह गयी आँखों को...