पक्के घर में कच्चे रिश्ते / शिव बहादुर सिंह भदौरिया

पुरखा पथ से
पहिये रथ से
मोड़ रहा है गाँव

पूरे घर में
ईटें-पत्थर
धीरे-धीरे
छानी-छप्पर
छोड़ रहा है गाँव

ढीले होते
कसते-कसते
पक्के घर में
कच्चे रिश्ते
जोड़ रहा है गाँव

इससे उसको
उसको इससे
और न जाने
किसको किससे
तोड़ रहा है गाँव

गरमी हो बरखा
या जाड़ा
सबके आँगन
एक अखाड़ा
गोड़ रहा है गाँव

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.