नील नवम्बर के अम्बर में
दूर देश की आवाजें हैं
आवाजों की पाँत
बह रही है सिवार-सी
साइबेरिया से जाने क्यों
पक्षी एक भी नहीं आया
आशंका में झील
गाँव रहनस की गहराने लगती है
बिसरे हुए राग के पीछे
बेसुध खिंचा चला जाता मन
पक आये हैं धान सुनहरे
लेकिन अभी हरे हैं कुछ-कुछ
पानी कातिक का है लेकिन
इसमें अब भी कुछ बिजली है
कुछ घन-गर्जन
कुछ-कुछ वर्षा की सुगन्ध है।
उस सुगन्ध का मीठा-मीठा दूध
सिंघाड़ों में भरता है
डूबी हुई जड़ों में छुप कर
नीर-क्षीर का खेल खेलती
रोहू-माँगुर
पीली-काली चोंचों वाली
साइबेरिया की चिड़ियों ने
कब का बदल लिया है रास्ता
इतनी बन्दूकों से बचना
हँसी-खेल की बात नहीं है
सूख चुकी है अरल झील
ये खबर सुनी क्या तुमने बहना!