भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पक गई खेती / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वैर की परनालियों में हँस-हँस के
हमने सींची जो राजनीति की रेती
उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं
कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था
घृणा की आज उसमें पक गई खेती
फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ हैं।

मेरठ, 15 अक्टूबर, 1947