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पखेरू / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

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पखेरू! भले छत छुओ व्योम की, पर
धरापर तुम्हे लौट आना पड़ेगा
निराधार आधेय को अंत में तो,
सहारायहीं का दिलाना पड़ेगा
(१)

तुम्हे आज विश्वास है- देवतागण,
बसे हैं कहीं अन्तरिक्षी- निलय में
इसी से उड़ाने भरे जा रहे हो,
लिये लालसा दर्शनों की हृदय में
हटाये हुये ध्यान हरियालियों से,
तराना सुनाते हो अमरावती का
करो खूब कीर्तन सुरों के विपिन का,
मगर खेत का गीत गाना पड़ेगा
(२)
भले स्वर्ग में हो अजरता- अमरता,
यहाँ हों जरा मृत्यु की आपदायें
मगर देवता- लोग फिर भी लिये हैं,
यहीं पर ही अवतार की लालसायें
हुये बावले स्वर्ग की चाह में तुम,
उसे चाहते क्या यहीं खींच लाना
अमृत पुत्र होने के नाते तुम्हे तो,
अवनि को अमरपुर बनाना पड़ेगा
(३)
तुम्हारे यहाँ भूमि पर क्या कमी है ?
हिमालय का माथा गगन चूमता है
समानाधिकारों---से मैदान फैले,
महा-सिन्धुगाम्भीर्य में झूमता है
मगर क्षेत्र प्रत्यक्ष केछोड़ कर तुम,
अलक्षित महाशून्य मेंजारहे हो
तुम्हे तो महाकाश के अंचलों में,
घटाकाश का ध्वज उड़ाना पड़ेगा
(४)
मिलें है संदेशे तुम्हे कोपलों से,
मिली मंद मुसकान कलिकावली से
प्रसूनों से जी खोल हँसना मिला है,
सफलता मिली डाल फूली- फली से
तुम्ही अब करो न्याय ऐसी दशा में,
कृतन्धी बने हो की त्यागी बने हो
जिसे छोड़ सुनसान यों जा रहे हो,
उसी डाल को फिरबसाना पड़ेगा
(५)
यहाँ मंजूमकरन्द के कोश खोले,
सुगन्धें हैंमंहकी वसन्तीबयारें
बरसती रहीं सांवलेअंचलोंसे,
हरी चादरों पर गुलाबी फुहारें
शरद- शर्वरी हँस के पंख धोकर,
सदा शारदा को सजाती रही है
तुम्हे दृश्य से देखने के लिये फिर,
इधर ही निगाहों को लाना पड़ेगा
(६)
न आती है क्या याद उन कोपलों की ?
तुम्हारे परों के ही संग जो उगी थी
न क्या याद उन मंजु कलियों की आती ?
तुम्हारी प्रभाती जो सुन के जगी थी
वहीं कोपलें आज पत्ते हुई हैं,
विजय- हार के फूल कलियाँ बनी हैं
विकासों की तुम को भी है लालसा तो,
तुम्हे साथ उनका निभाना पड़ेगा
(७)
तुम्हे ज्ञात है- व्योम में कशिश कुछ!
भटकते जो दिन- रात रवि- चाँद तारे
उतरते वे फिर भी धरा के ही ऊपर ?
रुचिर—रेशमी रश्मियों के सहारे
झगड़ते हैं नीलम के आँगन में तारे,
मगर धूल में फूल हैं मुस्काते
तुम्हेशान्ति की खोज में मिट्टियों की,
महक को ह्रदय से लगाना पड़ेगा
(८)
यही चाहते प्राण-पंछी तुम्हारे,
की ऊँचे उठें हँस अवंतस हो लें
शुभाशीष मैं भी उन्हें दे रहा हूँ,
की वे हँसहो लें परम- हँस हो लें
परम हँस लेकिन ह्रदय- मुक्त लेकर,
सदा बन्धनों को सरस हैं बनाते
तुम्हे भोग के कुंज में योग वाला,
विमल रास- मण्डल रचाना पड़ेगा
(९)
भले स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाकर,
प्रखर बुद्धि बारीकभेदों को पाये
मगर यह है निश्चय कि निश्चय से हटकर,
अनिश्चय में कुछ हाँथ उसके न आये
नियम जो कि प्रत्यक्ष के हैं उन्ही से,
परोक्षों में चिंतन मनन कर सकोगे
त्रणों से बने नीड़ के ही पगों पर,
हवाई महल को झुकाना पड़ेगा
(१०)
महाक्षेत्र, क्षेत्रज्ञ कीयोग-- माया,
किसी सेन छूटीतुम्ही क्या बचोगे
उलझते ही जाओगे उलझनमें उतना,
सुलझने को योंस्वांग जितने रचोगे
मिला मूल में बीज जो भी तुम्हे, वह,
तुम्हारे हीफल का तो है सूक्ष्म- कारण
असंगति हुये बिन वही बीज फिर से,
इसी क्षेत्र में ही उगाना पड़ेगा
(११)
अहम्मन्यता के नशे में मुसाफिर,
थकानों को हैशेखियों से छिपाना
मगर शेखियों की भी है एक सीमा,
हुआ क्षीण बल तो रिंगा भी न जाता
यही अंत में हाल होगा तुम्हारा,
अभी अंध–विश्वास में जा रहे हो
घड़ी एक ऐसी भी आयेगी जब इस,
अहम्भाव को डगमगाना पड़ेगा
(१२)
लिये शक्ति का दीप जाते किधर हो ?
अरे यहअकेला तुम्हारा नहीं है
दिया मान भी लें तुम्हारा अगर तो,
दिये का उजाला तुम्हारा नहीं है
अमावस के अभिशाप से स्याह होकर,
अँधेरीपड़ी पर्ण- कुटियाँ अनेकों
वहीं अंधकारों की छाती के ऊपर,
इसे लौलगाकरजलाना पड़ेगा
(१३)
यहीं पर ही अवतार श्री राम ने ले,
जनक केस्वयम्बर में सीता को पाया
यहीं पर ही अवतार घनश्याम नेले,
धनंजय के स्पन्दन में सीता को गाया
उतरना तो अवतार का अर्थ है, तुम,
त्रिकुटी में निगाहें चढ़ाये हुये हो
उठानों- चढ़ानों- उड़ानों का गौरव,
धरा परउतरकर सजाना पड़ेगा