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पगडंडियाँ / राकेश कुमार पटेल

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आज भी धीमी रफ़्तार से
नंगे पाँव चलती पगडंडियों की
बहुत याद आती है

जो बनती थीं मजबूत पैरों की
अनायास रगडऩ से
और खेतों-मेड़ों से होकर जाती थीं
उस बाजार तक
जिसके बीच पडऩे वाले बगीचे का
हर दरख्त पहचानता था
मेरी बूढ़ी दादी को

जो मेरी उंगली पकड़े
जाती थी कभी-कभार बाजार तक
बैठते, सुस्ताते अपनी पसंद के सामान लेने

किसी चित्रकार की फलक पे खींची हुई
सफेद सर्पाकार प्रतिकृति सी
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ गुम हो गईं कहीं

तेज रास्तों की रफ़्तार ने छीन लिए
नंगे पाँवों से बाजार तक जाने के अवकाश को!