भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पगडंडियाँ / राकेश कुमार पटेल
Kavita Kosh से
आज भी धीमी रफ़्तार से
नंगे पाँव चलती पगडंडियों की
बहुत याद आती है
जो बनती थीं मजबूत पैरों की
अनायास रगडऩ से
और खेतों-मेड़ों से होकर जाती थीं
उस बाजार तक
जिसके बीच पडऩे वाले बगीचे का
हर दरख्त पहचानता था
मेरी बूढ़ी दादी को
जो मेरी उंगली पकड़े
जाती थी कभी-कभार बाजार तक
बैठते, सुस्ताते अपनी पसंद के सामान लेने
किसी चित्रकार की फलक पे खींची हुई
सफेद सर्पाकार प्रतिकृति सी
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ गुम हो गईं कहीं
तेज रास्तों की रफ़्तार ने छीन लिए
नंगे पाँवों से बाजार तक जाने के अवकाश को!