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पगडंडी / संध्या रिआज़
Kavita Kosh से
धीरे-धीरे फिर उसी सूखी पगडंडी पर
उगने लगी है हरी हरी ऊनी घांस
छोड़ दिया था जिसको सबने
अकेला लावारिस बेसहारा सा
आज उसी सूखी पगडण्डी पर
कुछ नन्हे नन्हों ने फेरा था हाथ
उनके पैरों तले उसी घास ने गुदगुदा कर
किलकारियों से भर ली थी सूनी डगर
सबकी भूली-बिसरी या छोड़ दी गई ये राह
फिर एक बार जाग कर नयी हरी पोषाक पहन
खेल रही थी नन्हीं-नन्ही मासूम कलियों के साथ
सूखी पगडण्डी खो गई थी अब कहीं
उसने अपने सूखेपन को भी भुला दिया था
अब खिले हुए सतरंगे फूलों से सजी
वो ज़मीन पर लहराता इन्द्रधनुष बन गई थी
ठीक उस बेसहारा बेटी की तरह जिसे
अब प्यार करने वाली मां मिल गई हो