भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पगडण्डी / आरती तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाई जाती हैं
गाँवों कस्बों में ही
ढूंढे से भी नहीं मिलतीं
महानगरों के जाल में

मोहती आई हैं
अपने गंवई सौंधेपन से
कितने ही किस्से किंवदंतियाँ
सुनाते हैं इनके यात्रा-वृतान्त

किसके खेत से
किस बावड़ी तक
रेंगी,चली,उछली कूदी
और जवान हो गईं

इनके ग़म और ख़ुशी के तराने
गूंजते रहे चौपालों पर
ज़रूरत के हिसाब से
ज़रूरत के लिए बनती चली गईं
इनके सीने में दफ़्न हैं आज भी
पूर्वजों के पदचिन्ह

जो इन्हें चलना सिखाते थे कभी
और खुद इनके कन्धों पर चढ़कर
विलीन होते रहे
क्षितिज की लालिमा में

ये आज भी जीवन्त हैं
और गाहे बगाहे हंस देती हैं
महानगरों के ट्रेफिक जाम पर

ये बैलों की गली में बंधी
घंटियों के संगीत सुन
गौधूली की बेला में
आज भी घर पहुँचा देती हैं
नवागन्तुक को
जबकि महानगर नज़रें फेर लेता है

और तोड़ देता है दम
कोई सपना हौसला खोकर

पगडण्डी डटी रहती है
हटती नहीं अहद से