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पगड़ी के अन्दर आग के पंख / कुमार कृष्ण

जितनी बार गुजरता हूँ-
कालका से शिमला जाने वाली सड़क से
उतनी ही बार याद आती है तुम्हारी हरे रंग वाली पगड़ी
गूंजने लगता है कानों में-
ठूंठ बने दरख्तों का क्रन्दन
हरे-हरे पगड़ी के रंग वाले पेड़ों की सिसकियाँ
आरिफ1 की आरी ने क़त्ल कर डाली पूरी अमराई
जो गाती थी-
मेरे जन्म से भी पहले से धरती का गीत
गुनगुनाती थी ज़िन्दगी की ग़ज़ल
अब कौन सुनाएगा तुम्हारा पर्वत राग
सही कहा था तुमने मेरे दोस्त-
' दुःख कभी सन्नाटे में लिपटकर नहीं आता
उसकी भी एक ध्वनि होती है
जो गूंजती है भीतर-बाहर' ...
' दियासलाई वही करेगी
जो चाहेंगे आप
उसकी अपनी कोई भाषा नहीं होती'
तुम्हारी कविता के बीच में
अचानक चली आती है कहीं से तुम्हारी लाल पगड़ी
सोचता हूँ आख़िर क्यों बुझ गई
तुम्हारी पगड़ी के रंग वाली रिश्तों की आग
कहाँ चली गई सम्बन्धों की सरसराहट, गरमाहट
तुम लगातार बचाने में लगे हो कुछ शब्द कल के लिए
बना रहे हो अपनी ही कोई आकृति
कर रहे हो इस मौसम की धमनियों में
नए रक्त का संचार
गा रहे हो उन औरतों का गीत-
जो आधी धूप में हैं और आधी छाँव में
लिखना चाहते हो नयी इबारत-
ज़िन्दगी की चट्टान पर
मांग रहे हो माँ से-
मौसम के खिलाफ़ लड़ने का आशीर्वाद
एक दिन यही तो मांगा था अवतार सिंह ने भी
उसे विश्वास था आएगा मलखान एक दिन
बदल देगा धरती का व्याकरण
वह चला गया चुपचाप पगड़ी वाली धरती छोड़ कर
कोलम्बस की दुनिया में
अब पहाड़ पर खड़ा है एक बस एक सरदार कवि
लिख रहा है कविता उस फरमान के ख़िलाफ़
जहाँ कहा गया है-
' देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए
सपनों को साकार करने के लिए
सभी बजाते रहो तालियां'
उठो गुरमीत बेदी उठो कि कविता का समय आ गया है
उठो कि इस बार पर्वत राग पर गाना होगा बादल राग
तुम जानते हो
कैसे रखते हैं प्रवासी पक्षी अपने परों में
हजारों मील उड़ान का हौसला
उठो गुरमीत बेदी इस 'बची हुई पृथ्वी' 2 पर
किसी को तो रोकनी होगी आरिफ की आरी
किसी को तो फिर से बनाने होंगे चिड़ियों के घर
किसी को तो हल करना होगा फिर से
धरती का बीजगणित
किसी को तो छुपा कर रखने होंगे
बचे हुए रिश्ते।