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पछतावा / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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देखो न प्राण प्यारे
तुम्हरे न आने के दुख से व्याकुल हो
मोतियों की वह माला
जिसको पहना था तुमसे मिलन-अवसर पर
उसे तोड कर फेंक दी हैं मैंने
आकाश की ओर घुमा कर
जब तुम्हीं नहीं मेरे संग हो
तो यह श्रृंगार किसलिए !

सच मानो पिया
आकाश में चमक रहे ये तारे
वियोग की वेदना में फेंकी गई
मोतियों की वही माला है
जो टूट कर बिखर गई है

प्रियतम
अब भी तो आ जाओ
आकर देखो
आज तुम्हारी साँवरी
तुम्हारे लिए कितनी कलप रही है
कि अपने किए पर कितनी पछता रही है
सोचती हूँ
कि क्यों नहीं
उस दिन लोक-लाज छोड़ कर
मिल पाई तुमसे

क्यों नहीं कह पाई मन की सारी बातें
तुमने तो पुरूरवा होकर दिखा दिया
मैं ही उर्वशी नहीं हो सकी।

हाय, मेरा भाग्य
कहाँ ला कर छोड़ दिया यह तुमने मुझे।

यह लाज ही मेरे सभी दूखों का कारण है
आखिर नारी ही तो ठहरी प्रियतम।

क्या करोगे
लाज ही तो जनानी होती है
वही लाज, जो नारी का श्रृंगार है
और उसी लाज
डर और भय से
मैं साफ-साफ खुल कर
कुछ भी न बोल सकी
अक्षर भी बेमानी हो गये
तो इसमें मेरा क्या दोष।

तुम्हीं कहो।
दोष तो तुम्हारा भी है
कि यह सब कुछ बिना जाने
तुम फिर लौट कर नहीं आए।