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पड़ा सूना देवचौरा / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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कभी आँगन में
भरी थी धूप रहती
अब कभी भी नहीं आती
बीच में दीवार ऊँची उठ गई है
नए युग की धूप भी, साधो, नई है
सामने बन गया
ऊँचा लाटघर है
वह उसी में है समाती
हो गईं परछाइयाँ लम्बी समय की
अक़्स भी बातें न करते अब ह्रदय की
और छत पर
सगुनचिड़िया भी
न अब है सगुन गाती
हवा लाई साथ अपने घुप अँधेरे
कह रहा दिन - अब न आएँगे सबेरे
पड़ा सूना
देवचौरा -
दे रही है धुआँ बाती