पण्डित ओ गोआरि / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
पण्डित एक महानैष्ठिक पढ़ने सभ शास्त्र पुरान
तप-तप मे नित रहथि निरत, दिन भरि पूजथि भगवान
गोदुग्धक आहार करथि, व्रत कत छथि नियत करैत
हुनक हेतु पहुँचाबय दूध, गोआरिन दूर बसैत
नित्य नियम वेलापर पहुँचा दैछ उठौना ग्वारि
किन्तु एम्हर पहुँचय विलम्बसँ नदी भरल भदवारि
‘नाव - बेढ़ सँ पार कयल तेँ, अतिशय भेल अबेर
कथा बचैत छला पण्डित जी शास्त्र वचन पढ़ि ढेर
‘भवसागर धरि पार करय जन, लय लय भगवन्नाम’
सोचल ग्वारि, भने करबे हम पार नदी कहि ‘राम’
पण्डितजीक कथा मिथ्या नहि, सोचल ग्वारि अबोध
पहुँचाबय नित नियत समयपर नहि विलम्ब अवरोध
पुछलनि, की सुखि गेल नदी, वा नाव चलैछ निरंत?
कहल, तकर नहि काज, ‘राम’ कहि उतरी पार तुरंत
आब न नाव क खेबा हमरा अपने कृपेँ लगैछ
चकित-चित्त पण्डित गोआरि दिस तकलनि, हँसी करैछ!
कहलनि, हमहूँ चलब तोरा सङ पार गाम किछु काज
मन मे छलनि किन्तु की करइछ, देखी कोनहु व्याज
हुलसलि-फुलसलि चललि ग्वारि, पण्डितजी केँ अगुआय
नदी कात जा’ आगु चललि, चरफर जनु भूपथ जाय!
पार जाय ताकलि, पण्डित जी छला एही तट ठाढ़!
कहलक, राम नाम लय उतरू पार, जलो यदि गाढ़
की करताह सहस्र - नाम केर करइत गुन-गुन पाठ
धँसला जल मे क्रमहि गहिर लखि थाहल लय कर काठ
बाजि उठलि ओ ग्वारि, काज की छड़िक, हरिक यदि नाम
अपनहि कहल बुझल थिक हमरा, कहब कि अपने ठाम
किन्तु असंभव आगाँ बढ़ब बुझल तेँ घुरला अन्त
दुहु तट पर दुहु चकित सोचि किछु, अन्तर दुहुक दुरन्त!