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पता न चला / रचना श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
संघर्ष के चने चबाते
दाँत कब
असली से नकली हो गए
पता न चला
चौड़ा सीना ,झुकती कमर
कब हुआ ,
आँखों मे मोतिया
कब उतरा
पता न चला
पूरे घर से
कब एक 'कोना 'अपना हुआ
पता न चला
पता चल तो बस ये
के जीवन भर का अनुभव
बासी और पुराना होगया है
हमारी बातों की
किताब मे
लग चुका है दीमक
कोई कबाड़ी भी
न देगा अब दाम इसका
उम्र की चौथी अवस्था
महकाती नहीं घर को
पुराने फर्नीचर्स सा बोझ बन जाती है