पत्नी के नाम पत्र / नाज़िम हिक़मत / श्रीविलास सिंह
11. 11. 1933
बुशरा जेल
मेरी एक और एकमात्र !
तुमने लिखा था पिछले पत्र में :
“मेरा सिर भारी है,
और मेरा हृदय स्तम्भित !"
तुमने लिखा था :
‘अगर उन्होंने तुम्हें फाँसी पर लटका दिया,
यदि मैंने खो दिया तुम्हें,
मैं मर जाऊँगी !
”तुम जिओगी, मेरी प्रिये !
मेरी यादें गुम हो जाएँगी हवा में काले धुएँ की भाँति।
निश्चय ही तुम जिओगी, लाल केशों वाली मेरी हृदय-साम्राज्ञी :
बीसवीं शताब्दी में
दुख रहता है अधिकतम एक वर्ष तक ।
मृत्यु —
रस्सी से लटकती एक देह।
मेरा ह्रदय
नहीं कर सकता स्वीकार ऐसी मृत्यु।
किन्तु तुम शर्त लगा सकती हो
यदि किसी बेचारे घुमन्तू का काले बालों से भरा
मकड़ों सा हाथ
पहनाता है
एक फन्दा
मेरी गर्दन में,
वे ढूँढ़ेंगे व्यर्थ ही भय
नाज़िम की नीली आँखों में !
मेरी अन्तिम गोधूलि में
मैं देखूँगा अपने मित्रों को और तुम्हें
और मैं चला जाऊँगा
अपनी क़ब्र में
मेरी संगिनी
सुहृदय,
स्वर्णिम,
मधु से मधुर आँखों वाली — मेरी मधुमक्खी !
मैंने क्यों लिखा तुम्हें
कि वे फाँसी देना चाहते हैं मुझे ?
अभी तो ठीक से शुरू नहीं हुई है सुनवाई भी
और वे नहीं काट लेते किसी का सिर यूँ ही
किसी शलजम की भाँति ।
देखो, भूल जाओ यह सब ।
अगर हों तुम्हारे पास कुछ रुपये
तुम ख़रीद लो फलालैन के कुछ अन्तर्वस्त्र मेरे लिए
मेरा सायटिका फिर देने लगा है तकलीफ़ ।
और मत भूलना,
एक क़ैदी की पत्नी को
हमेशा ही सोचनी चाहिए अच्छी बातें ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीविलास सिंह