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पत्नी / मधु गजाधर

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एक ही दिन,
एक ही नक्षत्र में,
एक ही मंडप के तले,
सामान मन्त्रों के उच्चारण के साथ,
वरा था हम दोनों ने,
एक दूसरे को,
जन्मजन्मान्तर के लिए,
और की थी प्रतिज्ञा,
दुःख सुख में सदा साथ निभाने की,
मिलजुल कर जीने की,
एक दूसरे से कभी कुछ ना छिपाने की,
मैं ..
डरी सी, सहमी सी, शरमाई सी,
भरती रही अपने आँचल में,
वो सब बातें,
सोचती थी,
अपने आँचल की इस गठरी के साथ,
संभाल लूगी अपनी गृहस्थी,
पा लूंगी तुम्हार प्यार,
बन पाउंगी सब की प्रिया,
पर मैं नादान, मूर्खा,
कभी सोच ही नहीं पायी,
तुम्हारी गठरी कहाँ है ?
क्या धर्म, परम्पराएं,, रीति,रिवाज
सब मेरे लिए हैं ?
तब तुम्हारी गठरी में क्या है ?
मैं जान ही नहीं पायी कि...
एक बंधन में बंध कर भी,
हमारा धर्म,
हमारी परम्पराएं,
 रीति,रिवाज,
नहीं हैं सामान,
क्योंकि तुम हर नियम धर्म से परे थे,
तुम एक पुरुष थे
और जीवन कि इस बगिया से,
बहुत आसानी से चुन लिए तुमने सभी गुलाब,
मैं,
एक पत्नी,
बैठी रह गयी काँटों कि चुभन से व्याकुल,
इस इन्तजार में
शायद तुम मेरी पीड़ा समझोगे,
एकदिन ...
बाँटोगे मेरा दुःख मेरे साथ,
चुन लोगे सब कांटे
लेकिन ..
ऐसा कभी हो ना पाया ...
तुम्हारे पास समय नहीं था,
अनुभूति बंट चुकी थी तुम्हारी,
खुली आँखों में तुम्हारी,
उतर आये थे सपने अनेक,
और उन सपनों में,
मैं कहीं नहीं थी,
फ़ैल चुकी थी तुम्हारी दुनिया बहुत दूर तक,
और मैं...
वहीँ कि वहीँ थी,
कलेजे से अपनी गठरी लगाए,
रह गयी बहुत पीछे कहीं,
जहाँ पर तुम्हारी नज़र ही नहीं पहुँच पायी कभी,
आज उम्र के इस दौर पर आकर
मैं समझ पायी हूँ कि ...
तुम ने बस लेना ही जाना,
और लेने में भोगा है देने का सुख,
क्योंकि तुम एक पति थे
और मैंने....
मैंने बस देना ही जाना,
और देने में भोगा है लेने का सुख,
क्योंकि मैं एक पत्नी थी