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पत्रकारिता और राष्ट्रीय शर्म / राजीव रंजन प्रसाद

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और कितने खुलासे होंगे
मनोरोगी, मीडिया मेरे देश के
इसबगोल की भूसी पेट साफ रखती है….

हाथी के दिखाने वाले दाँत भी सफेद होते हैं
कृपा की/ नीले, पीले ,लाल, हरे सारे देखे
प्यासे को मरीचिका दिखायी तुमने
चमत्कार, हे कलियुग के नारद!!
गेंद को सूरज बनाया
बूंद में सागर देख पाने के पारखी तुम
सोच-शून्यता की नित नयी इबारत लिखते रहे
कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,
हम कीचड़ उछालते रहेंगे।

आओ देखो नग्न लड़कियाँ
बेडरूम की बंद खिडकियों के भीतर का
सब कुछ लाईव और एक्सक्लूसिव
भांति-भांति के गंडा-पंडा...
भूत-पिसाच निकट सब आवैं
चैनल वाले पकड़हिं लावैं
मटुक नाथ का प्रेम अनूठा
युग-दर्शक, जन-जन हितकारी
किसकी लड़की-किससे लागी
बलात्कार है या सहभागी
नोचो-नोचो कपड़े नोचो
देखो नंगा आंख झुकाये
एक बार फिर सच ले आये..

बंजर धरती
हरा चश्मा पहन कर देख ली
बेचने वाला वक्त बेच दिया
खरीदने वाली खबर खरीद ली
और पाउडर लिपस्टिक लगा कर
पत्रकारिता का बैनर सजा कर
वो सब कुछ परोसा
जिसका सिर इटली में था और पैर जापान में

मैं नहीं देख सकता
अपनी चार साल की बेटी के साथ भी
बुदू बक्से के तथाकथित समाचार
यह तकनीक का उपकार है
कि रिमोट से केवल सरकार ही नहीं चलती
चैनल भी बदलते है

बहुरूपिये!! हमारी ही आस्तीन में न डसो
बुद्धू-बक्से की सनसनी और झुनझुनी पत्रकारिता है?
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।

18.09.2007