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पथिक बनो दिए खुद पथ के / रंजन कुमार झा
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पथिक बनो दीये खुद पथ के
वर्ना हरसू अंधकार है
वज्र इरादों के शोलों सँग
दीवाली हर निशा मनाओ
पथ दुर्गम में पड़ी शिलाएँ
तोड़ो-फेको, दूर हटाओ
मांग वक्त की भांप चला जो
विजय रश्मियों पर सवार है
चट्टानी -फौलादी ताकत
दृढ़ संकल्पित निमिष न हिलना
सीख लिया जिसने जीवन के
कंटक में पुष्पों-सा खिलना
मंजिल केवल उसके पग का
ही करती नित इंतजार है
नभ के तारे सभी तुम्हारे
होंगे आज न कल, है निश्चित
निज पाँवों पर खड़े शूल की
आघातों से मत हो विचलित
भरत भूमि की इस माटी का
‘अप्प दीप भव’ संस्कार है