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पथ के पथिक से / अमरेन्द्र

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रुको नहीं, इन ऊँची-ऊँची चट्टानों के डर से
यह भी मत सोचो कि बैठा कौन कहाँ हो छुप कर
कहाँ गिरोगे किस खाई में, कहाँ लगेगी ठोकर
यह भी मत सोचो कि बच-बच जाना तुम्हें किधर से ।

सोच-सोच कर रुके रहे, तो रात यहीं पर होगी
संध्या होने से पहले घर जाना होगा मुश्किल
छाया भी ना होगी संग में, किसे करोगे शामिल
एक बार तो मन को कर लो निर्भय; जैसा, योगी ।

मन में जो कुछ भी पलता है, उसको पाना होगा
और नहीं तो जनम-जनम तक मन पर बोझ रहेगा
अभी कहे न कहे समय यह, कल तो खूब कहेगा
संकल्पी-सा जीवन का व्रत तुम्हें निभाना होगा ।

चलना होगा और मृत्यु के पथ पर तुम्हें अकेला
क्या होता है शाम हो गयी, घिरती रजनी वेला ।