पद 181 से 190 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद संख्या 183 तथा 184
(183)
राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।
बड़ेकी बड़ाई , छोटे की छोटाई दूर करै,
ऐसी बिरूदावली, बलि , बेद मनियत है।1।
गीध को कियो सराध, भीलनी को खायो फल,
सोऊ साधु -सभा भलीभाँति भनियत है।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,
जोग ग्यान हूँ ते गरू गनियत है।2।
प्रभु की कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,
महिमा समुझि उर अनियत है।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
दीनबंधु ! द्वारे हठ ठनियत है।3।
(184)
राम -नाम के जपे जाइ जियकी जरनि।
कलिकाल उपर उपाय ते अपाय भयें,
जैसे तम नासिबेेको चित्र के तरनि।1।
करम, कलाप परिताप पाप-साने सब,
ज्यों सुफूल फूले तरू फोकट फरनि।
दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके,
सुगति साधन भई उदर भरनि।2।
जोग न समाधि निरूपाधि न बिराग ग्यान ,
बचन बिशेष बेष , कहूँ न करनि।
कपट कुपथ कोटि , कहनि -रहनि खोटि,
सकल सराहै निज निज आचरनि ।3।
मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,
सुरसरि -तीर कासी धरम-धरनि।
राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,
जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि।4।
मति राम -नाम ही सों , रति राम -नाम ही सों,
गति राम-नाम ही की बिपति -हरनि।
राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे ,
कबहुँक, तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि।5।