पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5
पद संख्या 249 तथा 250
(249)
भली भाँति पहिचाने -जाने साहिब जहाँ लौं जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।
प्रीति न प्रवीन, नीतिहीन, रातिके मलीन,
मायाधीन सब किये कालहू करम।1।
दानव -दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,
जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।
रीझि-रीझि दिये बर, खीझि -खीझि घाले घर,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम।2।
सेवा -सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम।
सुरूख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोहि ,
बिदित बिसेषि घटघटके मरम।3।
तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो,
दसामें बसत देव सकल धरम।
राम कामतरू-छाँह चाहै रूचि मन माँह,
तुलसी बिकल, बलि, कलि-कुधरम।4।
(250)
तो हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरू।
आलसी -अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम, अवध सहरू।1।
सेये न दिगीस , न दिनेस, न गनेस,
गौरी, हित कै न माने बिधि हरिउ न हरू।
रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,
सुधा सो भरोसो एहु , दूसरो जहरू।2।
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरू।
निज काज, सुरकाज, आरत काज, राज!
बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरू।3।
रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरू।
कहेही बनैगी कै कहाये , बलि जाऊँ, राम,
‘तुलसी ! तू मेरेा, हारि हिये न हहरू’।4।