भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पनिहारिन के मेला / बैद्यनाथ पाण्डेय 'कोमल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नभ के तलइया में पूरबी कगरिया पर
खिलले कमल एक लाल।

धरती के मंगिया में सेनुरा चमकि उठल,
फूलवा पतइयन के बगिया लहसि उठल,
घसिया के फुनुगी पर सीतिया के पनिया में
बिछि गइले मोतियन के जाल।

चिरईं-चुरुँग सब खोंतवा से उडि गइले,
नभ के अगनवाँ में छुआ-छुई खेला खेले,
पूरबी छितिजवा पर धरती-गगनवाँ में
भर पेट मचले गुलाल।

सूतले गुलबवा रे पलक उठा के जागल,
भँवरा निदरदा रे घूरि-घूरि चूमे लागल,
सबके छजनियाँ पर सोनवाँ चमकि उठल।
हँसले जवान-बूढ-बाल।

घुसि फुलवरिया में डोलेला पवनवाँ रे,
छिपि बँसवरिया में बोलेला पवनवाँ रे,
अमवा बिरिछिया से कोइलि कुहुकि उठे
हवा पर झूला झूले डाल।

गाँव के किसान सब चलले बधरिया रे,
हरवा-बरथ लेके धइले डगरिया रे,
लहसत खेतवा के अरिया प घूमि-घूमि
भइले रे किसनवाँ निहाल।

घर-घर घूमि-घूमि गोरिया गोइँठवा ले,
चल अइली घरवा में अगिया-चिनिगिया ले,
अगिया जोराई गइले, गांव के गोयेंडवा रे
धुँअवाँ के परदा कमाल।

लडिका गदेला सब गइले छवरिया पर,
जमि गइल दोला-पांती निमिया बिरिछिया पर,
दउरे अकेले कोई नीचवा धरतिया पर
अउरी बइठे डाले-डाल।

गइया भंइसिया के दूधवा चुराई गइले,
पडिया-बछरु सब कूदि-कूदि आई गइले,
दूधवा दूहत बेरा घांय-घोंय-गगरों के
भरि गइले सबद रसाल।

नभ के तलइया में पूरबी कगरिया पर
खिलले कमल एक लाल।