पन्ने निर्वात की गूँज हैं / राकेश पाठक

पन्ने निर्वात की गूँज है
और आखर शब्द मन की लीला

सरसराते पन्ने में मादक गंध है अंदर तक भीता हुआ
गोया पाठक निकाल लाएगा
मथे हुए शब्द उसमें से
उसी मादकता के साथ
जब सृजन के नींव में
फुदका होगा कोई भाव अपना अभीष्ट लिए

तब क़िताबें कुछ नहीं रही होंगी
क्यूँकि तब शब्द भरे जा रहे होंगे

क़िताबें तब भी कुछ नहीं रही होंगी
जब कोई पढ़ने वाला नहीं रहा होगा

और तब भी
जहाँ क़िताबें पहरे में बंद
हुक्मरान के हुक्म के इंतज़ार में
निकलने के लिए मचल रही होंगी.

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